मैं एक आम आदमी हूँ। बचपन से ही मैं राजनीति को दूर से देखता आ रहा हूँ। राजनीति मुझे बचपन से ही एक व्यापार की तरह लगी है। लोगो को मैंने देखा राजनीति के लिए बहुत मेहनत करते, अपने खून पसीने की कमाई को किसी गैर के हाथो में न देकर अपने बच्चो को सौपते। शायद ये सब इतना सहज लगा मुझे की मेरे अन्दर के किसी मन में ये बैठ चूका है की राजनीति एक व्यापार है, यहाँ बहुत मेहनत है और यहाँ पे प्रतिश्पर्धा बहुत है।
ये सब देखते देखते मुझे पता चला की राजनीति के कुछ पुराने नारे हैं. जैसे की गरीबी मिटाना, अपराध कम करना, सरकार को महंगाई पे कोसना, भ्रष्टाचार के लिए गाली देना। जब मैंने धीरे धीरे बड़ा हुआ तो कुछ नए नारे सुनाई दिये। ये सब नारे सड़को पर या मोहल्ले में पोस्टरों पर तो नहीं देखते लेकिन चूँकि टीवी चैनलों का बहुत महत्व बढ़ गया इसीलिए नारे जैसे की आर्थिक विफलता, विदेश नीति , आतंरिक सुरक्षा इत्यादि भी शामिल हो गए। ये सब नारे पहले नए लगे लेकिन समय बीतने के साथ ये सब भी उन्ही पुराने नारों में शामिल हो गए।इतने दिनों में ये बात तो समझ में आ गयी थी कि नेता लोगो की बहुत कमाई है लेकिन चूँकि मेरे अंतर्मन ने ये स्वीकार कर लिया था की ये तो एक व्यापार है, मुझे इसमें ऐसी कोई आपत्ति नहीं थी। कभी कभी घोटाले सामने आते थे जैसे की बोफोर्स घोटाला , हवाला काण्ड, सैन्य सामानों में गड़बड़ी ... लेकिन ये सब मुझे उस व्यापार का एक हिस्सा लगते थे।
जब मैं और बड़ा हुआ तो बड़े बड़े आकडे सामने आये। समाचारों को सुनते हुए लगता था की ये लोग अपनी आदत के हिसाब से बढ़ा चढ़ाकर बता रहे होंगे। इतना ज्यादा पैसा कोई कैसे खा सकता है? मैं जब कामनवेल्थ में आंकड़े का सुना तो मुझे बहुत ही गुस्सा आया। क्या एक फ्रीज़ को कोई इतने दामो में खरीद सकता है? बाकि लोग क्या कर रहे थे जब ये डील हुयी? मुझे लगा अब जबकि ये बात आ ही गयी है तो जो भी लोग हैं उनकी तो वाट लग जाएगी। मैं रोज टीवी देखता रहता। धीरे धीरे कर के बात ख़तम होती जा रही थी। मैंने सोचा कुछ करना चाहिए। लेकिन क्या कर सकता था? शायद मैंने जो सोचा वही कुछ और समाज सेवियों ने भी सोचा और इसीलिए मैं उनका समर्थन करता हूँ।
देखते देखते ये एक बड़ा आन्दोलन बन गया। मैं सोचा इस मुहीम को कमजोर पड़ने नहीं देना चाहिए नहीं तो हम आम लोग फिर से वही कामनवेल्थ के बाद वाले नकारात्मक मूड में चले जायेंगे। इस आन्दोलन को जिद्दी होना चाहिए। वही आन्दोलन के नेतृत्व करने वाले लोगो ने सोचा।
जिद्द का एक नतीजा निकला। सरकार जो बहुत ही ज्यादा अभिमान में जी रही थी, थोड़ी झुकी। मुझे लगा की अब सरकार को थोडा समय देना चाहिए। टाइम तो लगता है। अन्ना के लोगो को भी वही लगा।
सारी पार्टियाँ एक हो गयी। सब मुझे साफ़ साफ़ दिख रहा था। सब ने संसद में आम जनता का और लोकपाल का खूब मजाक बनाया। टीवी पर लोकसभा पे चर्चा देखते हुए लगा की "कुछ नहीं हो सकता". मैंने सोचा सब पार्टी एक ही समान हैं किसी को चिंता नहीं है। सब आन्दोलन को टालना चाहते हैं। अन्ना के लोगो ने भी यही सोचा।
बहुत दिनों तक इसपे बात नहीं हुयी। इस कमिटी से उस कमिटी में भेजी जाती रही। मुझे लगा बात को कमजोर किया जा रहा है। टीम अन्ना को भी यही लगा। मुझे लगा नेतृत्व करने वाले लोगो को जबरदस्ती बदनाम किया जा रहा है। लोकपाल के अलवा बाकि सब बातो पे उनको घसीटा जा रहा है। फिर से आन्दोलन करना चाहिए। टीम को भी यही लगा।
मेरे दिमाग में सवाल आया की जिन लोगो के खिलाफ ये लोकपाल बयाना जा रहा है वही लोग कैसे इसे मजबूत बनायेंगे? दबाव दाल के भी इनसे कुछ नहीं कराया जा सकता। क्योकि ये लोग दबाव कम होने का इंतज़ार करते हैं। चुप रहते हैं। टीम अन्ना को भी यही लगा।
फिर मुझे न चाहते हुए भी लगा की शायद इनको उन्ही के तरीके में जवाब देना चाहिए। वही एक उपाय बचता है। वोट के अलावा और कोई उपाय नहीं दिखता . आज नहीं तो कल। नहीं तो आन्दोलन करने वाले बेचारो के जैसे करते रहेंगे. कभी भीड़ आई कभी नहीं आई में बहस करते रहेंगे और लोकपाल बनाने वाले संसद में फूहड़ बाते करते रहेंगे। टीम ने भी अभी यही सोचा है।
सारी बाते मेरे मन में भी आई जब वो टीम अन्ना के मन में आई। इसीलिए मैं उनका समर्थन करता हूँ।
विमल प्रधान
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